करनाल, 25 जून, 2017
आज यहां करनाल के पार्टी कार्यालय में आपातकाल पर गोष्ठी का आयोजन किया
गया जिसमें मुख्य रूप से भाकपा (माले) राज्य प्रभारी एवं अखिल भारतीय
किसान महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रेम सिंह गहलावत ने शिरकत
की। आज की गोष्ठी की अध्यक्षता राज्य लीडिंग टीम के सदस्य कामरेड ओम
प्रकाश आर्य ने की तथा संचालन कामरेड महेन्द्र सिंह चोपड़ा राज्य सचिव
भाकपा (माले) ने किया। गोष्ठी में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन
किया गया। गोष्ठी में आज मोदी काल में अघोषित आपातकाल के विषय अनुसार आज
के हालात पर यह पर्चा रखा गया।
मध्य प्रदेश के मंदसौर में पुलिस फायरिंग में किसानों की हत्या से समूचे
देश को चाहे जितना बड़ा सदमा लगा हो, चाहे जितना आक्रोश पैदा हुआ हो,
भाजपा इससे जरा भी परेशान नहीं है। शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने पहले
तो यह विवाद पैदा करने की कोशिश की कि पुलिस ने गोलियां ही नहीं चलाई।
उसके बाद कहा कि जो लोग मारे गए वे समाजविरोधी तत्व थे। और वास्तव में
किसान नहीं थे। अब जब आम जनता के सामने और मीडिया में इन दोनों बातों का
संदेहातीत रूप से फैसला हो चुका है कि पुलिस की गोली से ही किसान मारे गए
हैं तो भाजपा इसका दोष राज्य सरकार को बदनाम करने और अस्थिरता पैदा करने
के लिए विपक्ष द्वारा की गई साजिश के मत्थे मढ़ रही है।
प्रधानमंत्री मोदी, जो विदेशों में कहीं किसी की भी जान चली जाये तो उस
पर टवीट करते रहते हैं, उनको स्वभावत: मंदसौर में पुलिस फायरिंग और मारे
गए किसानों के बारे में कुछ कहने का वक्त नहीं मिला। केंद्रीय कृषि
मंत्री तो अपने चुनाव क्षेत्र में बाबा रामदेव के साथ योग का महोत्सव
मनाने में मशगूल रहे, चाहे किसान मंदसौर में मारे जा रहे हों या फिर उनके
अपने गृह शहर मोतिहारी में- इस किस्म की हत्याएं उनका योग से ध्यान नहीं
हटा सकी और जब शिवराज सिंह ने दिखावे के तौर पर शांति की प्रार्थना के
लिए अनशन शुरु किया, तो उनके सहकर्मी कैलाश विजयवर्गीय ने हमारे सामने इस
पूरे प्रकरण को समग्र परिपे्रक्ष्य में रखकर पेश किया। उन्होंने कहा कि
मध्य प्रदेश जैसे विशाल राज्य में मंदसौर महज एक छोटा सा जिला है और वहां
मात्र पांच-छह लोगों की जान चली जाये तो क्या बड़ी बात है।
मध्य प्रदेश और उसके पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र में जो किसान आंदोलन चल रहा
है वह समूचे ग्रामीण कृषिजीवी भारत में किसानों के अंदर लम्बे अरसे से
जमा भारी आक्रोश को प्रतिबिम्बत करता है। मध्य प्रदेश के बारे में सरकारी
प्रचार में तो इस बात का जश्न मनाया जा रहा है कि उस राज्य में कृषि
उत्पादन में रिकार्ड दहाई से ऊपर वृद्धि दर्ज कही गई है। मगर इधर फसल की
उपज अत्यंत विशाल मात्रा में हुई और उधर दालों का आयात बढ़ता जा रहा है,
इस स्थिति में आम किसानों के लिए खेती बिल्कुल घाटे का सौदा हो गई है।
नोटबंदी के चलते जो नकदी का अभाव पैदा हुआ और कृषि-ऋण का संकट पैदा हो
गया उसने किसानों की दुख-तकलीफ और बढ़ा दी है। इधर लागत का खर्च लगातार
बढ़ता जा रहा है और उधर उपज को बेचने से मिली रकम उस खर्च को पूरा करने
में नाकाफी साबित हो रही है। ऐसी हालात में किसान हड़ताल करने पर और यहां
तक कि उत्पादन में कटौती करने पर मजबूर हो रहे हैं, बाजार के लिए उत्पादन
करना छोडक़र भरण पोषण की खेती की ओर वापस लौटने की सोच रहे हैं।
वर्तमान में जारी आंदोलन स्वभावत: दो सामान्यत: प्रमुख मांगों के इर्द
गिर्द चल रहा है। किसानों की कर्जमाफी और कुल लागत पर खर्च पर कम से कम
पचास प्रतिशत मुनाफा सुनिश्चित करने वाला समर्थन मूल्य तय करना। जब से
मोदी ने उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले प्रदेश के किसानों के लिए कर्जमाफी
की घोषणा की है, तभी से तमिलनाडु और मध्य प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और
गुजरात तक कई राज्यों में किसानों की कर्जमाफी की मांग जोर पकड़ती जा रही
है। मध्य प्रदेश में लगभग सारे किसान संगठन इसी मुद्दे पर लड़ रहे हैं
मगर शिवराज सिंह सरकार ने केवल आरएसएस से सम्बद्ध भारतीय किसान संघ के
साथ एक समझौता कर लिया जिसमें किसानों की प्रमुख मांगों को दरकिनार कर
दिया गया है। स्वाभाविक है कि इस विश्वासघात से आम किसान इससे गुस्से में
फट पड़े हैं। पुलिस द्वारा फायरिंग ने केवल इस आंदोलन को चारों और फैल
जाने तथा मध्य प्रदेश के अंदर और बाहर आंदोलनकारी किसानों के संकल्प को
और मजबूत करने में मदद ही की है।
कृषि संकट की गहराई में निहित उसका ढांचागत चरित्र और उसके सामाजिक
परिणाम-जिसमें सबसे चिंताजनक पहलू किसानों की आत्महत्या परिघटना है- इस
चीज पर हाल के वर्षों में सिलसिलेवार ढंग से सत्ता में आई सरकारों ने
बिल्कुल कोई ध्यान नहीं दिया है। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में
प्रख्यात कृषि विज्ञानी एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में किसानों की
समस्या पर गौर करने के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की नियुक्ति की थी।
स्वामीनाथन कमेटी ने दिसम्बर 2004 से लेकर अक्तूबर 2006 तक पांच खंडों की
एक विस्तारित रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी। मगर उस रिपोर्ट को लागू करना
तो दूर, संसद में उस रिपोर्ट पर गंभीर बहस कराने के लिए भी उसे ढंग से
कभी पटल पर पेश ही नहीं किया गया।
स्वामीनाथन आयोग की प्रमुख सिफारिशें थी भूमि सुधार, सिंचाई सुधार, कृषि
को कर्ज का विस्तार और समर्थन मूल्य के ढांचे में सुधार करके उत्पादन की
लागत के खर्च पर 50 प्रतिशत मुनाफे के आधार पर लाभकारी समर्थन मूल्य तय
करना। ये मांगे ही वर्तमान किसान आंदोलन का मुख्य एजेंडा है, मगर भाजपा
सरकार हर सम्भव तरीके से इन मांगों को नकार रही है। जब देश मंदसौर में
मारे गए किसानों के लिए न्याय की मांग कर रहा है, तब हम नीति आयोग के एक
प्रोफेसर रमेश चन्द्र का ब्यान सुन रहे हैं जिसमें वे किसानों को उनकी
अविवेकपूर्ण आकांक्षाओं के लिए दोषी ठहरा रहे हैं और लोकलुभावनवाद से
किसानों को दुलारने के लिए राजनीतिज्ञों की लानत-मलामत कर रहे हैं।
प्रोफेसर चंद का नुस्खा है कि कृषि अर्थतंत्र का उदारीकरण कर दिया जाये।
बड़े पैमाने पर ठेके पर खेती के कानूनों को लागू किया जाये, तथा अधिक से
अधिक किसानों को खेती से अलग कर दिया जाए। यानि दूसरे शब्दों में समूचे
कृषि क्षेत्र को कारपोरेट नियंत्रण के अधीन कर दिया जाये।
भारतीय कृषि का कारपोरेट ढांचागत पुनर्गठन करने के इस एजेंडा को लागू
करने के लिए संघ-भाजपा सत्ता प्रतिष्ठान ने दुतरफा रणनीति अपनाई है - एक
और किसान आंदोलन का हिंसा के जरिये दमन और दूसरी ओर साम्प्रदायिक
धुव्रीकरण को तीखा करना। हमने देखा कि उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में
किस तरह संघ भाजपा ने गन्ना उत्पादक किसानों को साम्प्रदायिक आधार पर एक
दूसरे से लड़वा दिया और अब हम देख रहे हैं कि वे इसी साम्प्रदायिक आधार
पर डेयरी किसानों एवं चरवाहा किसानों को एक दूसरे से लड़ा रहे हैं। मगर
किसान आंदोलनों का वर्तमान दौर इन तमाम प्रतिकूलताओं का सामना करते हुए
संयुक्त प्रतिरोध की संभावना को दर्शा रहा है और महाराष्ट्र सरकार ने
देरी करके ही सही, सम्पूर्ण कर्जमाफी की जो घोषणा की है वह किसान शक्ति
की उसी मजबूती को दिखलाती है जिसने इससे पहले मोदी सरकार द्वारा छेड़े गए
आक्रामक भूमि अधिग्रहण अभियान में मोदी को कदम पीछे खींचने पर मजबूर कर
दिया था।
ऐतिहासिक तौर पर किसान प्रतिरोध ने भारतीय जनता की लोकतांत्रिक अग्रगति
को शक्ति प्रदान करने में तथा क्रांतिकारी कम्यूनिस्ट आंदोलन को ऊर्जा
प्रदान करने में महान भूमिका अदा की है। उन्नीसवीं सदी क किसान आदिवासी
विद्रोहों से शुरु करके बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में गांधीवादी
सत्याग्रह तक और बाद के वर्षों में पुन्नापरा वयालर, तेभागा, तेलंगाना से
लेकर नक्सलबाड़ी, श्री काकुलम और भोजपुर तक किसानों की गोलबंदी ही भारतीय
जनता के हर प्रमुख लोकतांत्रिक जागरण एवं दावेदारी की केंद्रीय शक्तिरही
है। फासीवाद विरोधी प्रतिरोध के वर्तमान दौर में आजकल पूरे देश में बढ़
रहे किसान आंदोलन में भी वहीं संभावना मौजूद है। भूमि सुधार से लेकर
किसानों की कर्जमाफी और सिंचाई/आधारभूत ढांचे में सुधार तथा लाभकारी
मूल्य तय करना एक शक्तिशाली किसान गोलबंदी को अंजाम देने के लिए किसान
आंदोलन के इस समूचे एजेंडे को हमें हाथ में लेना होगा। मोदी सरकार के
खिलाफ जबरदस्त जवाबी हमला करना आज वक्त की मांग है और किसान मोर्चे पर
हासिल हर जीत संघ-भाजपा के फासीवाद हमले को शिकस्त देने में निर्णायक
साबित होगा।
आज की इस गोष्ठी में भाकपा (माले) लीडिंग टीम के सदस्य कामरेड कृष्ण
सैनी, कामरेड ललित सक्सेना, कामरेड ईश्वर पाल, कामरेड बलजीत सैनी, कामरेड
अशोक कुमार गुप्ता, आईसा के नेता कामरेड प्रदीप पाल, सांस्कृतिक कर्मी
कामरेड ओम प्रकाश बीड बीडालवा, कामरेड मुकन्द सिंह, कामरेड रमेश, कामरेड
मदन लाल आदि ने भाग लिया।