यह व्यंग्य लेख किसी अज्ञात लेखक द्वारा सोशल मीडिया पर प्रेषित एक चुटकुले रूपी रचना से प्रेरित होकर लिखा है, जिसके विचार स्वरूप मैंने एक विलुप्त थेरेपी जो हमारे पूर्वज इम्युनिटि बढ़ाने हेतु प्रयोग करते थे उसे अपने ऊपर आज़माने हेतु अपने मस्तिष्क को कूटना शुरू किया, ज्यों ज्यों मैं इसे कूटता गया त्यों त्यों विचारों का झरना बहने लगा, वाक़ई ग़ज़ब है ये चिकित्सा शैली।
प्रस्तुत है विस्तार से:-
अनुभावों का हस्तांतरण पीढ़ियों से सभ्यता के विकास का मूल मन्त्र रहा, हमारे वेद भी तो ऋषियों, मुखियों व विद्वानों के अनुभवों का संग्रह हैं। पूर्वजों ने कालान्तर में अपनी परम्परागत चिकित्सा पद्धति का प्रयोग कर विभिन्न महामारियों जैसे प्लेग, हैज़ा व चेचक आदि का सफलतापूर्वक सामना कर मानवता को संरक्षित रखा।धन्य थे हमारे पूर्वज जिन्होंने कूटने के महत्व को समझ कर अपनाया व अगली पीढ़ी को ये विद्या हस्तांतरित करते गए।
विगत शताब्दी में पचास व साठ के दशक में जन्मी पीढ़ी साक्षी रही है एक ऐसी थेरेपी के सफल प्रयोग की, जिसके प्राकृतिक उपयोग के परिणामस्वरूप पौष्टिकता व शक्ति को बढ़ाया जाता रहा, पूर्वजों को तो विटामिन व मिनरल्स का ज्ञान भी न था, परन्तु इम्युनिटी व पौष्टिकता बढ़ाने की परम्परागत चिकित्सा ही प्रचलित थी जिसका नाम था कूटना व पीटना, जिसके अभाव में विवाह या त्योहार आदि उत्सव भी अपूर्ण माने जाते, परम्परागत मिठाइयाँ भी तो कूट कर ही बनाई जाती थी, होली सरीखे प्रमुख त्योहार भी बिना कूटे-पीटे सम्पन्न नहीं माने जाते थे, जड़ी बूटियों को कूट कर ही रोगों के उपचार हेतु दवा बनाई जाती, पौधों से अन्न को अलग करने के लिए कूटा जाता था, रसोई घर में प्रयोग किये जाने वाले मसालों को भी कूटकर तैयार किया जाता था, हर स्बवदिष्ट व्यंजन कुटे का ही परिणाम होता, बर्तन चाहे मिट्टी के चाहे धातु के कूट-कूट कर ही बनाए जाते थे, यहाँ तक कि कपड़ों को भी कूट कर धोया जाता था।
मानव जाति में रोग रोधक क्षमताएँ बढ़ाने के लिए इसी थेरेपी का प्रयोग किया जाता था, बचपन से प्रौढ़ अवस्था तक कभी-कभी तो इसके बाद की अवस्था के उपरान्त भी यही शैली अपनाई जाती रही, अपने से छोटों को कूटना-पीटना कदाचित् ख़ानदानी दादागिरी नहीं थी बस मात्र नुस्ख़ा माना जाता था, जिसकी जितनी अधिक डोज़ दी जाती इम्युन सिस्टम उतना ही सशक्त होता जाता था, जिसके परिणामस्वरूप रोगों से लड़ना सहज होता था। परिवार के हर बड़े को अपने से छोटों को कूटने-पीटने के सम्पूर्ण अधिकार थे, और तो और मोहल्ले गाँव के हर बुजुर्ग को यह अधिकार था कि वो किसी भी छोटे को स्वतन्त्र रूप से कूट सकते थे। प्राथमिक डोज़ परिवार व गली मोहल्ले के बड़ों की ज़िम्मेदारी होती थी। अध्यापक वर्ग तो सर्वाधिकार सम्पन्न होता था, बूस्टर डोज़ देने का काम इसी वर्ग का होता, कभी भी किसी भी छात्र को कूटने के उनके अधिकार को चुनौती न देकर अभिभावकों द्वारा सराहा जाता था, कभी-कभी तो बच्चे बिना कारण ही कूट दिए जाते थे, ग़लत जवाब पर कूटा जाना तो स्वाभाविक था, परन्तु कभी कभार तो सही उत्तर देने पर भी कुटाई हो ज़ाया करती, व सान्त्वना स्वरूप कह देते, बेटा अब तू यह पाठ आजीवन नहीं भूल पाएगा, वास्तव में ऐसा होता भी था, यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है।
भावी पीढ़ी की रोग रोधक शक्ति अति क्षीण हो गई है, कारण स्पष्ट है, परम्परागत प्राचीन थेरेपी का सर्वथा लुप्त हो जाना, यदि प्राचीन पद्धति चलन मे रहती तो आज शायद ये दिन न देखना पड़ता, करोना नामक संक्रमण का सामना करने में हम सहज समर्थ हो पाते। सत्तर के दशक के बाद जन्मी पीढ़ी को तो विभिन्न अपवादों का शिकार होकर हमने कमजोर कर दिया परन्तु सन् दो हज़ार के बाद की जनरेशन को सुदृढ़ बनाने के लिए तो जागरूक होना पड़ेगा, इस प्राचीन चिकित्सा पद्धति को पुन: अपना कर ही अगली पीढ़ियों की इम्युनिटि बढ़ाने की ओर कदम बढ़ाया जाना चाहिए।
वक़्त के हाथों विवश हम आज से पिछली पीढ़ी वाले कड़वे घूँट पी कर चुप्पी साधने के सिवा कुछ कर भी तो नहीं सकते, बच्चे तो बच्चे आज तो हम इतने विवश हैं कि गली में आए किसी आवारा पशु को भी कूट कर नहीं भगा सकते, वो भी मानवाधिकारों की तर्ज़ पर विशेष पशुअधिकारों से पोषित हैं।
आप सभी से अनुरोध है कि इस थेरेपी को किसी विशेषज्ञ की सलाह व देखरेख के बिना आज़माने का प्रयास न करें, अन्यथा परिणाम के उत्तरदायी आप स्वयं होंगे।.
*प्रस्तुति: डॉ.प्रवीण कौशिक,घरौंडा*
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