डॉ मुकेश अग्रवाल की कलम से....
शिवाजी राजे भोंसले पश्चिमी भारत के मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे, उनका जन्म 19 फ़रवरी 1630
एवं मृत्यु 3 अप्रैल 1680 को हुई थी। शिवाजी के पिता का नाम शाहजी भोंसले और माता का नाम जीजाबाई था। सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है। शिवाजी भारत के महान् योद्धा एवं रणनीतिकार थे, जिन्होंने 1674 ई. में पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखी। उन्होंने कई वर्ष औरंगज़ेब के मुग़ल साम्राज्य से संघर्ष किया। सन 1674 में रायगढ़ में उनका राज्याभिषेक हुआ और वे छत्रपति बने। शिवाजी ने अपनी अनुशासित सेना एवं सुसंगठित प्रशासनिक इकाइयों की सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया। उन्होंने समर-विद्या में अनेक नवाचार किये तथा छापामार युद्ध की नयी शैली (शिवसूत्र) को विकसित किया। उन्होंने प्राचीन हिन्दू राजनैतिक प्रथाओं तथा दरबारी शिष्टाचारों को पुनर्जीवित किया और फ़ारसी के स्थान पर मराठी एवं संस्कृत को राजकाज की भाषा बनाया।
हिंदवी स्वराज्य की अवधारणा:
1645 ई. में किशोर शिवाजी ने प्रथम बार हिंदवी स्वराज्य की अवधारणा दादाजी नरस प्रभु के समक्ष प्रकट की। शिवाजी प्रभावशाली कुलीनों के वंशज थे। उस समय भारत पर मुस्लिम शासन था। उत्तरी भारत में मुग़लों तथा दक्षिण में बीजापुर और गोलकुंडा में मुस्लिम सुल्तानों का, ये तीनों ही अपनी शक्ति के ज़ोर पर शासन करते थे और प्रजा के प्रति कर्तव्य की भावना नहीं रखते थे। शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। उन्होंने मुसलमान शासकों द्वारा किए जा रहे दमन और धार्मिक उत्पीड़न को इतना असहनीय पाया कि 16 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें विश्वास हो गया कि हिन्दुओं की मुक्ति के लिए ईश्वर ने उन्हें नियुक्त किया है। उनका यही विश्वास जीवन भर उनका मार्गदर्शन करता रहा।
औरंगजेब से संधि:
पुरन्दर की संधि के दौरान अपनी सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर शिवाजी आगरा के दरबार में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब से मिलने के लिए तैयार हो गये। वह 9 मई, 1666 ई. को अपने पुत्र शम्भाजी एवं 4000 मराठा सैनिकों के साथ मुग़ल दरबार में उपस्थित हुए। मुग़ल दरबार में बादशाह औरंगज़ेब द्वारा उचित सम्मान न प्राप्त करने पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगज़ेब को 'विश्वासघाती' कहा, जिसके परिणमस्वरूप औरंगज़ेब ने शिवाजी एवं उनके पुत्र को 'जयपुर भवन' में क़ैद कर दिया। वहाँ से शिवाजी 13 अगस्त, 1666 ई. को फलों की टोकरी में छिपकर फ़रार हो गये और 22 सितम्बर, 1666 ई. को रायगढ़ पहुँचे। जसवंत सिंह की मध्यस्थता से 9 मार्च, 1668 ई. को पुनः शिवाजी और मुग़लों के बीच सन्धि हुई। इस संधि के बाद औरंगज़ेब ने शिवाजी को जागीर दी तथा उनके पुत्र शम्भाजी को पुनः उसका मनसब 5000 प्रदान कर दिया।
राज्याभिषेक एवं छत्रपति की उपाधि:
सन 1674 तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था, जो पुरन्दर की संधि के अन्तर्गत उन्हें मुग़लों को देने पड़े थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु ब्राह्मणों ने उनका घोर विरोध किया। विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। काशी के पण्डित विशेश्वर जी भट्ट को इसमें विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था, पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। इस कारण से 4 अक्टूबर, 1674 ई. को दूसरी बार उनका राज्याभिषेक हुआ। दो बार हुए इस समारोह में लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुए। इस समारोह में हिन्दू स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण की विजय के लिए अपने दो सेनाधीशों को शिवाजी के विरुद्ध भेजा, पर वे असफल रहे।
मराठा साम्राज्य की स्थापना:
अपनी मृत्यु से पूर्व ही शिवाजी ने मुग़लों, बीजापुर के सुल्तान, गोवा के पुर्तग़ालियों और जंजीरा स्थित अबीसिनिया के समुद्री डाकुओं के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद दक्षिण में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना कर दी थी। धार्मिक आक्रामकता के युग में वह लगभग अकेले ही धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक बने रहे थे। उनका राज्य बेलगांव से लेकर तुंगभद्रा नदी के तट तक समस्त पश्चिमी कर्नाटक में विस्तृत था। इस प्रकार शिवाजी एक साधारण जागीरदार के उपेक्षित पुत्र की स्थिति से अपने पुरुषार्थ द्वारा ऐसे स्वाधीन राज्य के शासक बने, जिसका निर्माण स्वयं उन्होंने ही किया था। उन्होंने उसे एक सुगठित शासन-प्रणाली एवं सैन्य-संगठन द्वारा सुदृढ़ करके जन साधारण का भी विश्वास प्राप्त किया। जिस स्वतंत्रता की भावना से वे स्वयं प्रेरित हुए थे, उसे उन्होंने अपने देशवासियों के हृदय में भी इस प्रकार प्रज्वलित कर दिया कि उनके मरणोंपरान्त औरंगज़ेब द्वारा उनके पुत्र का वध कर देने, पौत्र को कारागार में डाल देने तथा समस्त देश को अपनी सैन्य शक्ति द्वारा रौंद डालने पर भी वे अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने में समर्थ हो सके। उसी से भविष्य में विशाल मराठा साम्राज्य की स्थापना हुई। शिवाजी यथार्थ में एक व्यावहारिक और आदर्शवादी व्यक्ति थे।
शिवाजी का व्यक्तित्व:
भारत के जिन वीरों ने अपनी असाधारण वीरता, त्याग और बलिदान से भारतभूमि को धन्य किया है, उनमें वीर शिवाजी का नाम अग्रगण्य है। मातृभूमि भारत की स्वतन्त्रता एवं गौरव के रक्षक वीर शिवाजी एक साहसी सैनिक, दूरदर्शी इंसान, सतर्क व सहिष्णु देशभक्त थे। उनकी चारित्रिक श्रेष्ठता, दानशीलता के अनेक उदाहरण गौरवगाथा के रूप में मिलते हैं। वे महाराष्ट्र के ही नहीं, समूची मातृभूमि के सेवक थे। वे हिन्दुत्व के नहीं, राष्ट्रीयता के पोषक रहे थे।
समर्पित एवं उदार हिन्दू:
शिवाजी एक समर्पित हिन्दू होने के साथ-ही-साथ धार्मिक सहिष्णु भी थे। उनके साम्राज्य में मुसलमानों को पूरी तरह से धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। कई मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया। उनके मराठा साम्राज्य में हिन्दू पण्डितों की तरह मुसलमान सन्तों और फ़कीरों को भी पूरा सम्मान प्राप्त था। उनकी सेना में मुसलमान सैनिक भी थे। शिवाजी हिन्दू संस्कृति को बढ़ावा देते थे। पारम्परिक हिन्दू मूल्यों तथा शिक्षा पर बल दिया जाता था। वह अपने अभियानों का आरंभ भी अकसर दशहरा के अवसर पर करते थे।
आदर्श पुत्र:
शिवाजी की माता, जो स्वतंत्र विचारों वाली हिन्दू कुलीन महिला थीं, ने जन्म से ही उन्हें दबे-कुचले हिंदुओं के अधिकारों के लिए लड़ने और मुस्लिम शासकों को उखाड़ फैंकने की शिक्षा दी थी। छत्रपति शिवाजी महाराज को अपने पिता से स्वराज की शिक्षा मिली, जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी भोंसले को बन्दी बना लिया तो एक आदर्श पुत्र की तरह उन्होंने बीजापुर के शाह से सन्धि कर शाहजी को छुड़वा लिया। इससे उनके चरित्र में एक उदार अवयव नजर आता है।शाहजी के मरने के बाद ही उन्होंने अपना राज्याभिषेक करवाया।
उत्तम कूटनीतिज्ञ:
वह एक अच्छे सेनानायक के साथ एक अच्छे कूटनीतिज्ञ भी थे। कई जगहों पर उन्होंने सीधे युद्ध लड़ने की बजाय युद्ध से भाग लिया था। लेकिन यही उनकी कूटनीति थी, जो हर बार बड़े से बड़े शत्रु को मात देने में उनका साथ देती रही। शिवाजी महाराज की "गनिमी कावा" नामक कूटनीति, जिसमें शत्रु पर अचानक आक्रमण करके उसे हराया जाता है, विलोभनियता से और आदरसहित याद किया जाता है।
छत्रपति शिवाजी
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ओढ़ी चादर राष्ट्रवाद की
जीत का शंख बजा दिया
हिंदवी की कल्पना का
बीज जिसने उगा दिया
ता उम्र सीना कर चौड़ा
लड़ता रहा एक सिंह सा
औरंगजेब सा शासक भी
अपने आगे झुका दिया
गोरिल्ला युद्ध मे जिससे
कभी ना जीत पाया कोई
युद्ध की एक नई शैली से
सब का दर्प गिरा दिया
कभी दूध जीजा माता का
जिस ने ना लजने दिया
मस्तक पिता का अपने
ऊंचा कर के दिखा दिया
नमन उस वीरता को आज
आओ हम सब मिलके करें
जिसने शिवाजी मराठे को
छत्रपति महाराज बना दिया
-- डॉ मुकेश अग्रवाल