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Saturday, 19 June 2021

क्या हम वास्तव में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के नागरिक हैं ?

- वीरेन्द्र पाठक,पूर्व सैन्य कर्मचारी एवं पूर्व बैंक अधिकारी
         राज तन्त्र व्यवस्था के अन्तर्गत सत्ता परिवार विशेष तक सीमित रहती है,  सत्ता हथियाने व प्रसार के लिए सेनाओं के बल पर युद्ध लड़े जाते थे, जो विजयी होता सत्ता उसके हाथ आ जाती।
     हमारा वर्तमान लोकतन्त्र भी उसी सिद्धांत पर आधारित है, अन्तर केवल युद्ध के प्रकार में आता है, इस व्यवस्था में युद्ध तलवार व तोप जैसे अस्त्र शस्त्रों से नहीं अपितु वोट नामक अचूक शस्त्र से लड़ा जाता है, जिसे हथियाना दलों को बख़ूबी आ गया है, जो वोटों पर मज़बूत पकड़ बना गया, सत्ता वैभव उसी का।
      राजतंत्र में विदूषक व राजपुरोहित शासक की कृपा पाने के लिए विभिन्न अलंकारों का प्रयोग करते, वर्तमान में यह काम मिडिया करता है, चुनावों के समय मिडिया द्वारा प्रयुक्त किए जाने वाले प्रमुख अलंकार लगभग हर चैनल पर सुनने को मिल जाते हैं:
  “सिंहासन, राजमुकुट, ताज, राजतिलक रथयात्रा, युवराज आदि,
पिछले चुनावी समय एक चैनल ने तो अपने चुनाव प्रसारण कार्यक्रम का नाम ही राजतिलक रखा था।
       क्या ऐसे अलंकार लोकतन्त्र में उपयुक्त है?
स्वतंत्रता पूर्व संयुक्त भारत 584 रियासतों में बंटा हुआ था, 1947 के बँटवारे के समय 14 पाकिस्तान के भाग में आई, एक पाक अधिकृत आज़ाद काश्मीर बनी तो एक को चीन ने दबोच लिया, बाक़ी 568      का 1949 तक भारत में विलय किया, व देश को 17 बड़ी रियासतों में बाँट दिया गया जिनकी संख्या आज 29 हो गई है। देश का हर राज्य एक राजशाही विरासत का हिस्सा बन चुका है जिस पर क्षेत्रीय दल रूपी शासकों का अधिपत्य स्थापित हो चुका है।राजाओं व राजपरिवारों का जो दबदबा सुनने में आता था वो आज देखने को मिलता है, राजा की सवारी जब निकलती तो लोगों को घरों में बन्द रहने का आदेश होता, आज भी जब किसी नेता का क़ाफ़िला चलता है तो रास्ता आम जनता के लिए बन्द कर दिया जाता है, राजा अंगरक्षक सैनिकों के सुरक्षा घेरे में रहते थे, आज भी नेता के क़द के अनुरूप सुरक्षा कवच मिला है, आज भी आम लोगों के लिए अपने तथाकथित लोकप्रिय नेता से मिलना उतना ही कठिन है जितना राजवंशों के समय राजा से मिलने में हुआ करता था, आज नेताओं से जनता की दूरी उस समय के राजा से प्रजा की दूरी कई गुणा अधिक हो गई है। 
       राजा महाराजाओं के काल में कर वसूली के उपरान्त पहले राजा, राजपरिवार व दरबारियों के भोग-विलास पर व्यय किया जाता, बाद में कुछ बचता तो जन कल्याण के विषय में सोचा जाता, आज भी वैसा ही है, नेताओं व अफ़सरों के सुख साधन जुटाने के उपरान्त कुछ बचे तो वोट बैंक पर लुटा दिया जाता है, कर दाता तो बस निहारता रह जाता है, कहाँ अन्तर पड़ा आम नागरिकों के स्तर पर? जैसे राजतंत्र में थे वैसे के वैसे प्रजातन्त्र में, अन्तर केवल व्यवस्था के नाम में आया है शायद, वरना आज के नेता तो पूर्व राजाओं से कहीं अधिक समृद्ध व शक्तिशाली हो चुके हैं
         1952 के प्रथम चुनावों में लगभग सभी पूर्व शासक सत्ता पुनः प्राप्त करने के उद्देश्य से चुनाव मैदान  में कूदे व लोकसभा या राज्य विधानसभाओं के सदस्यों के रूप में फिर से सत्तारूढ़ हो गए, जिनके वंशज हाल में भी सत्ता सुख भोग रहे।
          आज देश कुल मिलाकर  4549 ( जिनमें राष्ट्र प्रमुख, राज्यपाल, उपराज्यपाल, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभाओं व विधानपरिषदों के सदस्य) रजवाड़ों के हाथों में है या इस संख्या से कहीं और अधिक! इनसे तो ये व्यवस्था यदि 1947  वाली संख्या 568 तक ही सीमित रहती तो उचित था, करदाताओं पर  असंख्य नेताओं व भारी भरकम अफ़सरशाही के खर्च का बोझ तो कम पड़ता।
        धीरे-धीरे राजनैतिक दल भी कुछ परिवारों की धरोहर बनती गई, पंचायत से पार्लियामैंट तक लगभग हर स्तर पर राजशाही परम्परा के अनुरूप पीढ़ियों का शासन स्थापित हो चुका।
        पूर्व शासकों को गुज़ारे हेतु राजकोष से शाही भत्ता (privey purse) दिया जाता था जिसके चलते उन्हें दोहरा लाभ मिलता रहा।
पारिवारिक परम्परा का वर्चस्व एकछत्र रूप से स्थापित करने की नीयत से 1971 में संविधान में उल्लिखित नागरिकों के समान अधिकारों की रक्षा का हवाला देकर 26वां संशोधन सदन में पारित कर पूर्व शासकों को दिया जाने वाला शाही भत्ता समाप्त कर दिया, परिणाम क्या निकला? आज पूर्व सांसदों विधायकों को पैंशन व सुविधाओं के रूप में कई गुणा शाही भत्ता दिया जा रहा है जो राजकोष पर अनुचित व अवांछनीय भार हैं। कहाँ रह गया नागरिक समानता का मौलिक अधिकार? 
     नागरिकों से तो 35 से 40 साल सेवा करने के बाद भी पैंशन का अधिकार छीन लिया व मिलने वाली सभी मूलभूत सुविधाओं का अधिकार भी सेवानिवृत्ति के साथ ही वापिस ले लिया जाता है।नागरिक सेवाओं में कार्यरत सभी कर्मियों के वेतन व भत्ते पर आयकर देय होता है तो इन रजवाड़ों के वेतन व भत्ते आयकर से मुक्त क्यों?
     आज भी किसी राष्ट्रीय संकट के समय आर्थिक सहायता का सारा भार आम नागरिकों के कन्धों पर ही टिका दिया जाता है, हाल ही के कोविड काल में भी केवल कर्मचारियों के ही भत्ते आदि में कटौती की गई यहाँ तक कि पैंशन धारियों को भी नहीं बख्शा गया, क्यों नहीं विधायिका के वर्तमान या पूर्व सदस्यों के वेतन, भत्ते, व सुख सुविधाओं में कभी कटौती कर राहत कोष में योगदान दिया जाता? क्या यह सब सिद्ध नहीं कर रहा कि हम लोकतंत्र के नाम पर राजतंत्र की पीड़ा झेल रहे।
         राजनीति शास्त्र के अनुसार लोकतन्त्र के मूल सिद्धांत “Government by the people, of the people and for the people”  ये परिभाषा भी वर्तमान में लोकतन्त्र में परिवर्तन के परिणामस्वरूप परिवर्तित हो कर कुछ इस प्रकार हो गई है:
Government buy the people, off the people and far the people” राजनीति की नींव स्वार्थ पर रखी जा चुकी है जो विशेषतः राजपरिवारों में होता था। राजनीति सेवा नहीं एक आकर्षक व अत्यन्त लाभकारी पेशा बन चुकी है।
        मेरी इस रचना का सृजन हाल में लोक जनशक्ति पार्टी के पारिवारिक विवाद से प्रेरित होकर हुआ।
यही एकमात्र पर्याप्त उदाहरण नहीं, जहाँ तहाँ राजशाही परम्परा ही दिखाई देती है,  बस मात्र दावा करने के लिए हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र रह गए हैं।
प्रस्तुति:डॉ. प्रवीण कौशिक,घरौंडा

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