आज का लोकतांत्रिक समाज हमारी पौराणिक कथाओं में वर्णित व्यवस्था का ही तो प्रतिरूप है, अन्तर केवल इतना है कि पहले लोकसभा का वर्णन नहीं था केवल राजसभाओं का वर्णन मिलता है।
कथाओं के अनुसार तीन वर्गों में विभाजित थी व्यवस्था —देव ,दानव औरऋषि
तदानुसार वर्तमान वर्गीकरण भी इसी प्रकार है:-
कालान्तर के देव गण वर्तमान के सांसद, विधायक, पार्षद आदि हैं।असुर गण वर्तमान के विपक्षी दल हैं।
ऋषि गण आज के जनमानस व कर दाता।
पहले दोनों वर्गों के भरणपोषण का दायित्व पौराणिक युग में भी ऋषि समाज का था, सो आज के युग में भी वही परम्परा है। यही वर्ग पहले भी उत्पादन व व्यापार आदि करता व करो का बोझ ढोता रहा, ऋषि लोग ही गुरूकुल व आश्रमों में देव समाज की सन्तान को शिक्षित व युद्ध कला में पारंगत करने में शिक्षा दान का कार्य करते थे।
देवों व असुरों ने मिलकर उस युग में अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए ऋषि समाज को ही माध्यम बनाया, वही कुछ आज भी हो रहा है।
पुराणों के उल्लेख अनुसार कभी भी देवों की ओर से कोई बलिदान नहीं दिया गया, देव निहित स्वार्थ के लिए ऋषि वर्ग को ही दानव (असुर) समाज से भिड़वा कर अपने स्वार्थ सिद्ध करते थे, सो आज भी वही व्यवस्था चली आ रही है,
ताज़ा उदाहरण बंगाल के चुनाव जहां आपसी संघर्षों में किसी वर्तमान देव ने अपने प्राण नहीं गवांए, बली चढ़े तो ऋषिगण(आम कार्यकर्ता), या कोविड महामारी, काम आए तो बेचारे ऋषि मुनि। कोई नेता संक्रमित हुआ तो बताओ, या कोई ……… ?
देवों ने सदैव ऋषियों को ही स्वार्थ के लिए प्रयोग किया चाहे वो पुराण उल्लेखित ऋषि दधिची रहे हों, जिनके बलिदान के उपरान्त उनकी अस्थियों को भी इन्द्र देव ने अपने स्वार्थ में प्रयोग कर वज्र का निर्माण कराया, जिसे प्रयोग कर इन्द्र ने वृत्रासुर नामक दानव का वध कर अपने प्राणों की रक्षा की। वही कुछ वर्तमान में देखने को मिल रहा, टैक्स या महंगाई की पूरी मार आम जनता ही झेल रही है देव -दानवों पर तों इन सबका लेशमात्र भी बोझ नहीं।
देव- दानव द्वन्द्व के सागर मन्थन के कूर्म ( कछुआ) जिनकी पीठ पर मदराचल पर्वत रख कर मन्थन किया गया था वो आज का तीसरा वर्ग ही तो था, मंथन से निकले कालकूट हलाहल (विष) को पीकर शिव तो नीलकंठ कहलाए व अमृत को पाने के लिए देव और दानवों में हाथापाई हुई बल प्रयोग हुआ जिसके फलस्वरूप अमृत बिखर गया, व ख़ाली लोटा थमा दिया ऋषि समाज को, जो आज तक भी उस ख़ाली कलश को उठाए ख़ुशी से झूम रहा है।
आज भी तो वैसा ही कुछ हो रहा हैं, वोट बटोरने को बनाईं तथाकथित समाज कल्याणकारी योजनाओं का भार हों या लाकडाउन के कारण डुबती अर्रथव्यवस्था इन सबका भार तो अपनी पीठ पर झेला आज के कच्छप रूपी ऋषि समाज ने, क्या किसी देवगण के सुखसाधनों में कोई कटौती हुई? नहीं ना, फिर भी दुनिया भर में प्रशंसा का पात्र तो कोई देवगण ही बन गया, ऋषि बेचारा तो वही गुरूकुल का हवनकुंड बन कर ही रह गया, व उसी दिव्य कलश पर आम्रपत्र व सूखा नारियल रख अपनी पूरी श्रद्धा उँडेल रहा है
व्यवस्थाएँ चाहे पौराणिक हों या वर्तमान आम आदमी का कोई अस्तित्व नहीं है, कहने को लोकतन्त्र भले है पर लोक महत्व केवल वोट बटोर कर सत्ता सुख प्राप्त करने का साधन मात्र ही बन कर रह गया ।
प्रस्तुति:डॉ. प्रवीण कौशिक
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