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Tuesday, 9 November 2021

लोक आस्था का महापर्व छठ

रिफायनरी,राजपाल प्रेमी,कौशिक
छठ  लोक आस्था का महापर्व  है  जो हमारी प्राचीन परंपरा, महान सभ्यता एवं संस्कृति का एक अनुपम  प्रतीक है। कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला यह  महान  पर्व  मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। इस पर्व मे मुख्य रूप से  भगवान दीनानाथ यानि सूर्य भगवान की आराधना की जाती है और छट्ठी मईया की पुजा की जाती है ।यह पर्व  मुख्य रूप से बिहार मे बड़े धुम धाम से मनाया जाता है और ऐसी मान्यता है कि यह पर्व  पूरे भारत का ऐसा पर्व है जो वैदिक काल से चला आ रहा है। यह पर्व बिहार की  वैदिक आर्य संस्कृति की  एक  झलक दिखाता हैं। छठ पूजा सूर्य, प्रकृति,जल, वायु और उनकी बहन छठी म‌इया को समर्पित है ।
इस पर्व  के नियम बहुत  कठोर हैं और  यह चार दिनों की अवधि में मनाए जाते हैं। इनमें पवित्र स्नान, उपवास और पीने के पानी (वृत्ता) से दूर रहना, लंबे समय तक पानी में खड़ा होना, और प्रसाद (प्रार्थना प्रसाद) और अर्घ्य देना शामिल है।  पर्व की शुरुवात नहाय खाय से होती है जिसमे  पर्व करने वाली महिलाएं एवं पुरुष शुद्ध शाकाहारी  बिना लहसुन और प्याज का खाना बनाती है। खाना में व्रती कद्दू की सब्जी ,मुंग चना दाल, चावल का उपयोग करते है .यह खाना मिटटी के बर्तन में  लकड़ी की आँच पर पकाया जाता है।। जब खाना बन जाता है तो सर्वप्रथम व्रती खाना खाते है उसके बाद ही परिवार के अन्य सदस्य खाना खाते है।
छठ पर्व का दूसरा दिन जिसे खरना या लोहंडा के नाम से जाना जाता है । इस दिन व्रत करने वाली महिलाएं एवं पुरुष  पुरे दिन  निर्जला उपवास रखती है। शाम को चावल,  गुड़ और गन्ने के रस का प्रयोग कर खीर बनाया जाता है।  पुजा करने के बाद  सबसे पहले व्रती  यह प्रसाद खाती हैं और  अपने सभी परिवार जनों एवं मित्रों-रिश्तेदारों को वही ‘खीर-रोटी' का प्रसाद खिलाते हैं। । चावल का पिठ्ठा व घी लगी रोटी भी प्रसाद के रूप में वितरीत की जाती है। इसके बाद अगले 36 घंटों के लिए व्रती निर्जला व्रत रखते है।  मुख्य रूप से इसी दिन मध्य रात्रि को व्रती छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद ठेकुआ बनाती है।
छठ पर्व का तीसरा दिन जिसे संध्या अर्घ्य के नाम से जाना जाता है। पुरे दिन सभी लोग मिलकर पूजा की तैयारिया करते है। छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद जैसे ठेकुआ, चावल के लड्डू जिसे लरुवा भी कहा जाता है, बनाया जाता है । छठ पूजा के लिए एक बांस की बनी हुयी टोकरी जिसे दउरा कहते है में पूजा के प्रसाद,फल  इत्यादि  रखा  जाता है। शाम को एक सूप में नारियल,पांच प्रकार के फल,और पूजा का अन्य सामान लेकर दउरा में रख कर घर का पुरुष अपने हाथो से उठाकर छठ घाट पर ले जाता है। छठ घाट की तरफ जाते हुए रास्ते में प्रायः महिलाये छठ का गीत गाते हुए जाती है।सूर्यास्त से कुछ समय पहले सूर्य देव की पूजा का सारा सामान लेकर घुटने भर पानी में जाकर खड़े हो जाते है और डूबते हुए सूर्य देव को अर्घ्य देकर पांच बार परिक्रमा करते है।।  बहुत सारे लोग घाट पर रात भर ठहरते है वही कुछ लोग छठ का गीत गाते हुए सारा सामान लेकर घर आ जाते है और उसे पुजा घर  में रख देते है । 
आज कल लोग अपने अपने घरों के छत पर भी  सूर्य भगवान को अर्घ्य  देने लगे हैं।
छठ पर्व के चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। सूर्योदय से पहले ही व्रती लोग घाट पर उगते सूर्यदेव की पूजा हेतु पहुंच जाते हैं और शाम की ही तरह उनके परिजन उपस्थित रहते हैं। सभी नियम-विधान सांध्य अर्घ्य की तरह ही होते हैं। सिर्फ व्रती लोग इस समय पूरब की ओर मुंहकर पानी में खड़े होते हैं व सूर्योपासना करते हैं। पूजा-अर्चना समाप्तोपरान्त घाट का पूजन होता है। वहाँ उपस्थित लोगों में प्रसाद वितरण करके व्रती घर आ जाते हैं और घर पर भी अपने परिवार आदि को प्रसाद वितरण करते हैं। पूजा के पश्चात् व्रती  कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण कहते हैं। व्रती लोग खरना दिन से आज तक निर्जला उपवासोपरान्त आज  ही नमकयुक्त भोजन करते हैं। 
 छठ व्रत के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी। कहा जाता हैं कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो  गया और छठ का चलन भी शुरू हो गया।
दूसरी  कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गये, तब श्री कृष्ण द्वारा बताये जाने पर द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। तब उनकी मनोकामनाएँ पूरी हुईं तथा पांडवों को उनका राजपाट वापस मिला। लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का सम्बन्ध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी।
इस पर्व के संबंध  मे लोक आस्था यह है कि  इस पर्व को जो लोग  पूरे नियम और साफ सफाई से करते हैं तो छठी मैया  उनकी सब मनोकामनाएँ पूरी कर देती है। यही वजह है कि यह पर्व अब भारत के अन्य राज्यों के साथ साथ  विदेशों मे भी बहुत धूम धाम से मनाया जाने लगा है।
 (राकेश रौशन)
 
 
 

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